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यहाँ शिष्य पूछता है कि चेतक आत्मा और चैत्य विकार – ये दोनों अज्ञानी को एक भासित होते हैं, उसे भगवती प्रज्ञा द्वारा किसप्रकार भेद किया जा सकता है। उसे सम्यकदर्शन और आत्मानुभव कैसे हो सकता है?
इस प्रश्न का समाधान यह है कि आत्मा और बन्ध की नियत स्वलक्षणों की सूक्ष्म अन्तः संधि में प्रज्ञाछैनी को सावधान होकर पटकने से चैत्य रूप विकार को छेदा जा सकता है।
जिस तरह एक दिखने वाला पहाड़ वस्तुतः एक नहीं होता, उसमें अनेक पत्थर होते हैं जो अति नजदीक होने से एक जैसे लगते हैं, उनकी संधि को देखकर उसमें सुरंग लगाने से वह पहाड़ छिन्न-भिन्न हो जाता है। ठीक इसीतरह ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मा व पुण्य-पाप एक नहीं है, उनके बीच भी सूक्ष्म संधि हैं। इसलिए स्वानुभव में समर्थ प्रज्ञाछैनी से उसे छेदा जा सकता है।
(समयसार गाथा 294, प्रवचन रत्नाकर भाग 8, पेज 347-348)
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