Jain spiritual poets have composed wonderful poems. While describing the mysterious modes of enlightened individuals, they say, "I find the method of steadfast and watchful knowing to be strange.” Aha! Just as darkness flees when the sun rises, similarly, Bāhubalī's anger dissipated after hearing Emperor Bharata's tender words, and he stood there in a contemplative state. All the ministers, priests, scholars, family members, and the entire army highly appreciated and approved Emperor Bharata's wise and affectionate response.
However, Bāhubalī's mindset has wholly transformed now. He realized the misdeeds that he committed and thought, "I have dishonored my elder brother Bharata - the emperor of six continents, my wellwishers, the confidence of my mother and 8000 queens, my and Bharata’s sons, the Chakra ratna and the entire populace of India. Oh! What have I done? Even though I am called Madana (the epitome of love), my heart is as hard as a stone. How could I even think of fighting against my brother? In reality, the nature of this world is indeed mysterious. I will not be able to rule in the future as all the subjects and other kings will hold me in disdain. No, Dīkṣā (renunciation) is the best course of action now. It is an opportunity to purify my soul and follow my father's path."
When Bāhubalī emerged from his inner turmoil, he saw that all the armies, including Vidyadhara kings, divine beings, the emperor and his army, and all ministers and priests saluted him. But now Bāhubalī felt disgraced. He wondered why they were all saluting him and felt embarrassed by their gestures. At that moment, he decides it is best to express his feelings to his elder brother, known for his profound wisdom. With tears in his eyes, Bāhubalī apologizes to Bharata, saying, "Brother, People will never be able to forgive me for this misdeed that I have done towards you. Through oneness with the fruits of ephemeral karma, I committed this misdeed. I am extremely sorry for it." Emperor Bharata rises from his seat and embraces Bāhubalī, saying, "Brother, don't worry. I hold no discontentment towards any of your actions. Do not feel depressed and have any regrets. However, Bāhubalī's dissatisfaction remains. He explains, "Brother, I am no longer worried after hearing your words. But I have a wish; please accept it." Emperor Bharata asked, “Please ask what you wish for. I will fulfill all your wishes.” Bāhubalī said. “Brother, please allow me to embrace an ascetic life. I want to go and meditate in the forest.” Emperor Bharata was surprised and felt sad after hearing these words. With teary eyes, he embraced Bāhubalī and said, “Brother, forget this wish and ask for anything else. Please do not ask me to grant this wish. Why think about renouncing the world? We have already managed to avoid the war, so what is the reason for renouncing the world? We will think about this noble path together after some time. But not now, my brother! I want to live with you. Please do not disappoint me by saying this. Where will I go If you leave me just like other brothers left us? Bāhubalī's said, “Brother, whether the war did or did not take place is not the reason, but I was petty to oppose you. My conscience is unable to accept this guilt. Emperor Bharata tried to convince Bāhubalī, but the moment of destiny was here. The time that every Bhavi jeeva (souls capable of attaining liberation) awaits has arrived. When a soul walking on the path of infinite wise and enlightened beings crosses the first stage of material life and moves towards the second stage, i.e., Muni Dīkṣā (initiation into monkhood). Although Emperor Bharata experienced disgrace due to a timing flaw, he cared more for his brother. Emperor Bharata tried to stop Bāhubalī, but he proceeded to the forest after getting Bharata’s approval. Bāhubalī appointed his son to serve Bharata. Although tears filled Emperor Bharata's eyes, Bāhubalī departed with a smile, bidding farewell to all, and took off into the forest.
बाहुबली का वैराग्य – जैन आध्यात्मिक कवियों ने भी कमाल किया है, ज्ञानियों की विचित्र परिणति हेतु वे कहते हैं – “चिन्मूरत दृग धारी की मोहे, रीति लगत है अटापटी” आहा! जिसप्रकार सूर्य के प्रकाशित होते ही अंधकार उल्टे पाँव भागता हुआ दिखाई देता है उसीप्रकार भरत के मृदुवचनों से बाहुबली का क्रोध रूपी अंधकार भाग गया और वे चिंतामग्न होकर खडे हो गये। सभी मन्त्री-पुरोहित, विद्वज्जन, संतानें और सर्व सेना ने भरत के चातुर्य और वात्सल्य की मुक्तकंठ से अत्यंत अनुमोदना और प्रशंसा की। परन्तु अब बाहुबली की मनोदशा पूर्ण रूप से बदल चुकी है, उन्हें अपने द्वारा किये गये दुष्कर्मों का भान हो रहा है, वे मन ही मन विचारते हैं कि “मेरे द्वारा षटखण्डाधिपति और मेरे ही बडे भाई भरत का, मेरे हितैषियों का, मेरी माता एवं आठ हजार रानियों के विश्वास का, मेरे और भरत के पुत्रों का, चक्ररत्न का एवं सम्पूर्ण भारत की प्रजा का अपमान हुआ है। हाय! मैंने यह क्या कर दिया, भले ही मेरा नाम मदन हो परन्तु मेरा हृदय तो पत्थर का है, मैंने अपने ही भाई से युद्ध करने का विचार किया भी कैसे? वास्तव में इस संसार की गति विचित्र है, अब आगे मैं राज्य नही कर सकूँगा, सम्पूर्ण प्रजा व अन्य राजा मेरा तिरस्कार करेंगे… नही! अब दीक्षा लेना ही श्रेष्ठ उपाय है, यही वह अवसर है जब मैं अपनी आत्मा का कल्याण कर अपने पिता के मार्ग को अपना सकता हूँ।” बाहुबली जब अपने अंतरद्वन्द्व से बाहर आये तो उन्होंने देखा कि सर्व सेना उन्हें ही नमस्कार कर रही है, सर्व विद्याधर राजा, देवगण, सम्राट और उनकी सेना, सर्व मन्त्रीगण एवं पुरोहित, परन्तु अब बाहुबली को ये सब अपयश लग रहा है, वे विचार रहें हैं कि ये सब मुझे नमस्कार क्यों कर रहे हैं, वे उनकी इस प्रतिक्रिया से लज्जित होने लगे तब उन्होंने निर्णय किया कि अपने मन की सारी बात अब बडे भैया से साफ़-साफ़ कहने में ही भलाई है। बाहुबली ने अश्रुपूर्ण नेत्रों से भरत से क्षमा माँगी, वे कहने लगे कि “भैया, मैंने आपके प्रति जो ये दुष्कार्य किया है, इसके लिये लोक मुझे कभी क्षमा नही कर सकेगा, क्षणभंगुर कर्मोदय के कारण मेरे द्वारा यह दुष्कृत्य हुआ, मुझे इसका अत्यंत दुख है”, भरत अपने आसन से खडे होकर बाहुबली को गले लगाकर बोले कि भाई, कोई बात नहीं, तुम व्यर्थ में खेदखिन्न ना हो, तुम्हारे किसी भी कार्य पर मुझे कोई असंतोंष नही है, तुम कोई चिंता मत करो। परन्तु बाहुबली के मन का असंतोष नही पूर्ण हो रहा था, वे कहते हैं कि “भैया आपके वचन सुनकर मुझे अब कोई चिंता नही, परन्तु मेरी एक इच्छा है, उसे आप स्वीकार कीजिये।” भरत ने पूछा कि “बोलो भाई! तुम क्या चाहते हो? मैं तुम्हारी सर्व इच्छाओं को पूर्ण करूँगा।” बाहुबली बोले – “भैया मुझे जिनदीक्षा लेने की अनुमति दीजिये, मैं वन में जाकर ध्यान करने की भावना रखता हूँ।” यह बात सुनकर भरत अत्यंत आश्चर्य और शोक में पड गये, अश्रुनेत्रों से बाहुबली को आलिंगन देते हुए बोले कि “भाई, यह भूलकर कुछ भी मांग लो, परन्तु यह नही। अब दीक्षा का विचार क्यों? युद्ध तो हुआ ही नही, तब दीक्षा के लिये जाने का क्या कारण? इस मोक्ष कार्य में हम दोनों साथ में कुछ समय पश्चात विचार करेंगे ही, परन्तु अभी नही भाई! मैं तुम्हारे साथ रहना चाहता हूँ। कृपया ऐसा कहकर मुझे निराश मत करो।, मेरे अन्य भाईयों की भाँति तुम भी यदि मुझे छोड कर चले जाओगे तो मैं क्या करूँगा?” बाहुबली बोले “भैया, युद्ध होना ना होना कारण नही, परन्तु मैंने आपका विरोध करने की क्षुद्रता की है, इसलिये मेरा अन्तर्मन इस ग्लानि को स्वीकार नही कर पा रहा है। भरत ने बाहुबली को बहुत समझाया, बहुत मनाया परन्तु बाहुबली की होनहार अब आ चुकी है, वह समय अब आगया है जिसका हर भव्य जीव को इंतजार रहता है, वह क्षण जब वह अनन्त ज्ञानियों के मार्ग पर चलने का प्रथम पडाव पार कर दूसरे पडाव अर्थात मुनिदीक्षा की ओर अग्रसर होता है। कालदोष के कारण भरत का अपमान हुआ परन्तु भरत को अपना भाई अधिक प्रिय है, वे उसे रोकते हैं परन्तु बाहुबली भरत से आज्ञा ले ही लेते हैं और वन की ओर प्रस्थान करने लगते हैं। बाहुबली अपने पुत्र को भरत की सेवा में नियुक्त करते हैं, भरत की आँखों में आँसू हैं परन्तु बाहुबली मुस्कुरा रहें हैं और सबसे विदा लेकर वे वन की ओर चले जाते हैं।