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बोधिदुर्लभ भावना:- यह कथा है कोटि सागरोपम तक परिभ्रमण करते हुए जीव की, जो बोधिदुर्लभ भावना भाते हुए तीर्थंकर बनकर मोक्ष में जा बसे। जब तीर्थंकर ऋषभदेव वैराग्य को प्राप्त हुए तब उनके साथ भरत पुत्र मरीचि भी संयमधारी हो गए, पर परीषहों की पीड़ा से घबराकर कुभाव को प्राप्त हो गए। उन्होंने नया पन्थ – सांख्यमत प्रकट किया। आगे वह मरीचि का जीव ब्राह्मण के यहाँ विद्वान पुत्र और मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव के रूप में उत्पन्न हुए। फिर वही जीव रानी मृगावती के पुत्र के रूप में त्रिपुष्ठ नारायण बने। बलवान त्रिपुष्ठ ने एक बार सिंह के साथ लड़ते हुए एक हाथ से बलपूर्वक सिंह को पकड़कर दूसरे हाथ को लपलपाती जिह्ववाले सिंह के मुख में हाथ डालकर उसे पछाड़ दिया और उस पंचानन सिंह का वध किया। अपने निदान के वश रौद्रध्यानपूर्वक मरकर त्रिपुष्ठ तैंतीस सागर के आयुवाले सातवें नरक में पहुंचे और नरक से निकलकर सिंह योनी में उत्पन्न हुए। जंगल में सिंह एक मृग का वध कर रहा था। तब वहाँ से दयालु अजितजय नामक चारण मुनि, अमितगुण नामक मुनि के साथ आकाश मार्ग से जा रहे थे। उन्हें उस सिंह को देखकर तीर्थंकर के वचनों का स्मरण हो गया। वे आकाश से उतरकर सिंह के पास आये और करूणावश सम्बोधन करते हैं, “हे मृगपति! तू शान्ति का निलय बन तथा कषाय दोषों को विलय कर, कुमति-मिथ्यात्त्व के अनुबन्ध का शीघ्र ही त्याग कर और जिनवर दुर्लभ बोध का अपने मन में विचार कर। “योग्यतावश सिंह बोधिदुर्लभ भावना का चिंतवन करता है और आत्मज्ञान की प्राप्ति करके समाधिमरण धारण करता है। वह आत्मज्ञानी सिंह, तपश्चर्या के फलस्वरूप सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ और दसवें भव में चैत्र सुदि 13 के दिन कुंडलपुर में राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला के पुत्र के रूप में जन्में। उनका नाम वर्धमान रखा गया। वे जन्म से ही वीरता को सार्थक करनेवाले वीर थे। राजकुमार वर्धमान ने जिनदीक्षा धारण की और ध्यान योग से केवलज्ञान प्राप्त किया। मुनिराज द्वारा दुर्लभ बोधि को प्राप्त करके अनंत परिभ्रमण करता जीव भगवान महावीर बन गया।
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Bol