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ध्यान कर्म निर्जरा का कारण
परीषहाद्यविज्ञानादास्त्रवस्य निरोधिनी ।
जायतेऽध्यात्मयोगेन कर्मणामाशु निर्जरा ॥२४॥
परिषहादि अनुभव बिना, आतम-ध्यान प्रताप।
शीघ्र ससंवर निर्जरा, होत कर्म की आप ॥२४॥
अर्थः मुनिराज आत्मध्यान में लीन हैं, वे द्रव्य-भाव-नोकर्म से भिन्न अपने शुद्धात्म स्वरूप का रसास्वादन कर रहे हैं। जब जीव आत्मा में आत्मा के ही चिन्तवन रूप ध्यान में मग्न होता है तो उसका लक्ष्य एकमात्र अपने ज्ञायक स्वभाव पर केन्द्रित होता है। आत्मा व शरीर के भेदज्ञान से उत्पन्न आनन्द से परिपूर्ण मुनिराज इस अवस्था में आने वाले भयंकर उपसर्गों व घोर परिषहों को भोगते हुए भी खेद-खिन्न नही होते। वे तो समस्त आधि-व्याधि-उपाधियों से रहित निरुपाधिक आत्मा में ही मग्न हैं और इस ध्यान से कर्मों के आगमन को रोकने वाली उत्कृष्ट कर्म-निर्जरा होती है।
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