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व्यर्थ की इच्छा
भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मयापीठ सर्वेऽपि पुद्गलाः ।
उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य मम विज्ञस्य का स्पृहा ॥ ३०॥
सब पुद्गलको मोहसे, भोग भोगकर त्याग।
मैं ज्ञानी करता नहीं, उस उच्छिष्ट में राग ॥३०॥
अर्थः अनादि काल से इस भव चक्र में फंसा यह जीव, अनन्त बार – अनन्त वस्तुओं का बार-बार भोगता आया है। इस विश्व के प्रत्येक परमाणु को भोगने के बाद भी मोह के कारण इसकी आसक्ति नही छूटती। भोगों को नीरस कर-करके छोडा लेकिन उनके प्रति मोह नही छूटा। वास्तव में स्वयं भोगकर छोडे झूठन, गंध, मालादिक में जैसे लोगों को फिर भोगने की इच्छा नही होती उसी तरह इस समय तत्त्वज्ञान से युक्त हुए मुझ ज्ञानी जीव को उन छिनकी हुई रेंट (नाक) समान पुद्गलों में क्या अभिलाषा होगी?
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Gatha