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आत्मा ही गुरु है
स्वस्मिन् सदभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वतः ।
स्वयं हितप्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मनः ॥३४॥
आपहि निज हित चाहता, आपहि ज्ञाता होय।
आपहि निज हित प्रेरता, निज गुरू आपहि होय ॥३४॥
अर्थः वास्तव में हर वो जीव जो अपना हित चाहते हैं और दूसरे के भी हित के अधिकारी है इस भावना से उस उपाय को दूसरों तक पहुँचाते हैं अर्थात हित के प्रवर्तक होते हैं; वे ही सच्चे गुरु हैं। आश्चर्य वाली बात तो यह है कि समस्या व समाधान स्वयं में ही है, मोक्ष सुख की अभिलाषा करने वाला भी मैं, मोक्ष सुख के उपायों को जताने वाला भी मैं और मोक्ष सुख के उपाय को प्रवर्तन करने वाला भी मैं अतः परमार्थ से तो ये आत्मा ही आत्मा का गुरु है, अन्य कोई नही।
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Gatha