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ध्यान ही निर्जरा है
अगच्छंस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च जायते ।
अज्ञाततद्विशेषस्तु बध्यते न विमुच्यते ॥४४॥
वस्तु विशेष विकल्प को, नहिं करता मतिमान।
स्वात्मनिष्ठता से छूटत, नहिं बंधता गुणवान ॥४४॥
अर्थः जिन्हें अध्यात्म से प्रेम है वे पर की चिंता नही करते, वास्तव में चिन्ता तो उसी की होती है जो अपना नही होता परन्तु मोहवश उसे अपना मानकर बैठ जाते है; योगिजन तो परमार्थ जीवन जीते है, वे शुद्धात्मा जो स्व पदार्थ है उसे ही स्वयं अनुभव करते हैं। एकबार बलराम मुनिराज जब नगर में आये तो उनके शरीर की सुन्दरता देख स्त्रियाँ पात्र की जगह अपने बच्चों के गले में ही रस्सी बाँधकर उन्हें कुएँ में डालने लगी; यह देख मुनिराज पुनः वन की ओर गमन कर गये। मुनिराज को शरीर की सुन्दरता-कुरूपता का आकर्षण नही अतः उस जातिगत राग-द्वेष पैदा न होने से वे कभी बंधन को प्राप्त नही होते अपितु समस्त बंधनों से मुक्त ही होते हैं।
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Gatha