आचार्य पूज्यपाद का उपकार
इष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य धीमान्,
मानापमानसमतां स्वमताद्वितन्य ।
मुक्ताग्रहो विनिवसन् सजने वने वा,
मुक्तिश्रियं निरुपमामुपयाति भव्यः ॥ ५१ ॥
इष्टरूप उपदेश को, पढ़े सुबुद्धी भव्य
मान अमान में साम्यता, जिन मन से कर्तव्य ॥
आग्रह छोड़ स्वग्राम में, वा वनमें सु वसेय
उपमा रहित स्वमोक्षश्री, निजकर सहजहि लेय ॥५१॥
अर्थः आचार्य पूज्यपाद द्वारा विरचित गागर में सागर स्वरूप इस इष्टोपदेश ग्रन्थ के तत्त्व का जिसने भलीप्रकार अर्थ अवधारण किया है और अब जो हित-अहित का विवेक रखते हुए परीक्षा करने में निपुण हुआ है ऐसा भव्य जीव समस्त मान-अपमान छोडकर आत्मज्ञान पूर्वक साम्यभाव का ही पुरुषार्थ करता है। मिथ्यात्व व कषायों के त्याग पूर्वक परम्परा से पुरुषार्थ करते हुए व कर्मों की हानि करते हुए वह भव्य शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करता है।