Deva-puja (physical worship of a passionless god) is considered the first of six essential duties for a Shravak in the divine discourse of the omniscient lord, as passionless gods are the true refuge and the objects of adoration for the soul. Emperor Bharata adhered to these duties with pure intentions and spiritual sentiments. He would regularly visit the Jain temple along with his queens. He left royal decorations, security, and riches behind. Emperor Bharata would adorn himself in pure white garments, tie his hair into a knot, and make markings of sixteen divine ornaments on the heart, shoulders, and other body parts using Shrigandha (sandalwood paste). After making a tilak (a mark) on his forehead, he looked majestic, like a Dharma chakra eager to defeat Karmic enemies. After adorning the body with minimal and modest ornaments and wearing silver sandals, Emperor Bharata peacefully proceeded towards the Jain temple carrying a bejeweled plate full of pooja material. During this time, he had strictly instructed his staff that no one should greet, praise, or serve him. He refrained from displaying any signs of royal pride, neither a canopy nor a chamar (flywhisk), neither an attendant nor any army, nor even the king's pride, for devotion to the omniscient lord filled his heart. Like a pure and knowledgeable lay disciple, he was heading to the temple to worship the divine lord. His queens also knew this day was special, marking Emperor Bharata's sanyama (self-restraint). Accordingly, after yoga-snana they all similarly adorned themselves, wearing white attire, and accompanied him to the temple. In reality, Emperor Bharata and all his queens were wise, for they did not indulge in suggestive clothing or ornaments that would be inappropriate for an occasion of self-restraint. In truth, rather than inciting passion, their adornments highlighted their goal of seeking liberation. They were preceded by the celestial sound of conch shells and surrounded by the sound of musical instruments in both directions. Emperor Bharata appeared exceedingly charming, surrounded by his queens on all sides.
जिनमन्दिर जाते हुए भरत – सर्वज्ञ परमात्मा की दिव्यदेशना में श्रावकों के षट-आवश्यक कार्यों में सर्वप्रथम देव-पूजा को स्थान दिया गया है, क्योंकि वे ही जीव को सच्ची शरण हैं, उसके आराध्य हैं। इन्हीं आवश्यकों का पालन सम्राट पूर्ण हृदय एवं धर्म भावना से करते थे। वे नियमपूर्वक अपनी सभी रानियों के साथ जिनमन्दिर को जाया करते थे। समस्त राज शृंगार और सेना-सम्पत्ति को छोड वे भरत शुद्ध धवल वस्त्रों को धारणकर, केशों को बाँधकर, श्रीगंध से हृदय, भुजाओं इत्यादि स्थानों पर षोडश-आभरणों की रचना कर एवं मस्तक पर तिलक धारण कर कर्म शत्रु को नाश करने हेतु तत्पर धर्मचक्र के समान सुशोभित होते थे। तन पर सीमित एवं लघु आभरण, हाथों में रत्नमयी द्रव्यों से पूर्ण पूजन की थाली, पैरों में चाँदी की खडाऊ धारण कर भरत शान्त चित्त से जिनमन्दिर की ओर जाते थे। इस समय उनकी कठोर आज्ञा थी कि कोई उन्हे नमस्कार ना करे, प्रसंशा ना करे और सेवा-सुश्रुषा भी ना करे। छत्र नही, चामर नही, सेवक नही, सेना नही और ना ही राजा होने का अभिमान, क्योंकि सम्राट का हृदय तो प्रभुभक्ति के आनन्द से भर उठा है। वे तो एक शुद्ध एवं ज्ञानी श्रावक की भाँति मन्दिर में अपने आराध्य से मिलने जा रहे हैं। रानियों को भी ज्ञात है कि आज तिथि विशेष होने से भरत के संयम का दिवस है अतः उसी के अनुरूप उन सभी ने भी स्वामी के समान योगस्नान एवं धवल वस्त्र धारण कर मन्दिर की ओर भरतेश के साथ प्रस्थान किया। वास्तव में उनकी सभी रानियाँ चतुर हैं क्योंकि किसी ने भी संयम के अवसर पर काम विकार जिनसे उत्पन्न हो ऐसे वस्त्राभूषण धारण नही किये, वास्तव में तो उन्होंने मोह का नही अपितु मोक्ष का ही शृंगार किया है। दोनो ओर वाद्ययंत्रो की ध्वनि, आगे-आगे दिव्य शंख का आकाश नाद हो रहा है और इसमें चारों ओर से रानियों से घिरे सम्राट अत्यन्त शोभनीय प्रतीत हो रहे हैं।