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लोक भावना:- पुराण प्रसिद्ध नगरी अयोध्या के महाराजा सुमित्र की महारानी भद्रा की कोंख से महा तेजस्वी पुण्यशाली पुत्र रत्न का जन्म हुआ। महारानी ने पुत्र के जन्म के पूर्व देखे शुभ सपनों की बात महाराजा को बताई। पुत्र के मुख चंद्र को देखकर महाराज ने सपनों के फल दर्शाते हुए बताया कि यह बालक मोक्षमार्गी महात्मा और चक्रवर्ती का अवतार है। बालक का इन्द्र जैसा तेजस्वी रूप देखकर माता-पिता ने इंद्र का ही अपरनाम “मघवा” रखा। यह “मघवा” पंद्रहवे तीर्थंकर धर्मनाथ के तीर्थ में हुए भरतक्षेत्र के भूषण तीसरे चक्रवर्ती थे। चक्रवर्ती के अद्भुत वैभव एवं भोगोपभोग में मघवा को चैन नहीं पड़ता था और बाहर में छः खंड को साधने वाले चक्रवर्ती मघवा अंदर में अखण्ड आत्मा की साधना के लिए उत्सुक रहते थे। ऐसे महा वैरागी चक्रवर्ती मघवा एक दिन दैवी वस्त्राभूषण धारण करके राज्यसभा में प्रवेश कर ही रहे थे तब एक दूत ने सन्देश दिया कि महाराज “अभयघोष” केवली मनोहर नामक उद्यान में पधारे हैं। सुनते ही चक्रवर्ती भगवान की गंधकुटी में पहुंच गए। भगवान के दर्शन-पूजन-स्तुति करके चक्रवर्ती अपने स्थान पर बैठ गए। बाद में खड़े होकर आदर पूर्वक पूछा “हे नाथ! सम्पूर्ण लोक में अनादि काल से परिभ्रमण का अंत लाकर सिध्द दशा की स्थिर स्थिति पाने का उपाय कृपा करके दर्शाये। “केवली भगवान किसी के साथ प्रश्न-उत्तर या समाधान नहीं करते, पर चक्रवर्ती जैसे विशिष्ट पुरुष के द्वारा प्रश्न के समाधान में सहज दिव्यध्वनि खिरती है जिसमें केवली भगवंत ने लोक भावना का स्वरूप दर्शाया। “हे भव्य! अनादि काल से चल रहे सम्पूर्ण लोक के भ्रमण के एकमात्र कारण लोक संज्ञा है, और भ्रमण के निवारण करके लोकाग्र स्थिर स्थिति प्राप्त करने का उपाय लोक भावना का चिंतवन है। लोक संज्ञा के कारण जीव पर पदार्थ को जानते समय उसके प्रति मोह-राग-द्वेषरूप कर्तृत्व भाव करता है, जिसके कारण कर्म का बंधन और उसके फलस्वरूप सम्पूर्ण लोक में परिभ्रमण चालू रहता है। लोक भावना के अभ्यास पूर्वक उसका चिंतवन करने से लोकाग्र सिध्ददशा, शाश्वत सुख-शांति-स्थिरता की प्राप्ति होती है। केवली भगवान की अमृत वाणी का पान करते ही चक्रवर्ती मघवा लोक भावना के चिंतवन में मग्न हो जाते हैं। समयांतर में वैराग्य प्रकट करके वे “मुनि मघवा” हो जाते है और फिर निज चैतन्य लोक में अप्रतिम वीर्य का प्रसार करके केवलज्ञान और शाश्वत सुखमयी मोक्षदशा को प्राप्त कर लेते हैं।
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