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जैसे प्रबल कीचड़ के मिलने से जिसका सहज एक निर्मल भाव तिरोभूत (आच्छादित) हो गया है, ऐसे जल का अनुभव करने वाले पुरूष- जल और कीचड़ का विवेक न करने वाले ( दोनों के भेद को न समझने वाले ) बहुत से तो उस जल को मलिन ही अनुभवते हैं, किन्तु कितने ही अपने हाथ से डाले कतकफल ( निर्मल – एक औषधी ) के पड़ने मात्र से उत्पन्न जल-कादव की विवेकता से, अपने पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत किये गये सहज एक निर्मल भावपने से उस जल को निर्मल ही अनुभव करते हैं।
इसीप्रकार प्रबल कर्मों के मिलने से जिसका सहज एक ज्ञायकभाव तिरोभूत हो गया है, ऐसे आत्मा का अनुभव करने वाले पुरुष, आत्मा और कर्म का विवेक (भेद) न करने वाले, व्यवहार से विमोहित हृदयवाले तो, उसे ( आत्मा को ) जिसमें भावों की विश्वरूपता ( अनेकरूपता ) प्रगट है – ऐसा अनुभव करते हैं, किन्तु भूतार्थदर्शी ( शुद्धनय को देखनेवाले ) अपनी बुद्धि से डाले हुए शुद्धनय के अनुसार बोध होने मात्र से उत्पन्न आत्म-कर्म की विवेकता से, अपने पुरुषार्थ द्वारा आविर्भूत किये गये सहज एक ज्ञायकभावत्व के कारण उसे (आत्मा को ) जिसमें एक ज्ञायकभाव प्रकाशमान है – ऐसा अनुभव करते हैं ।
(गाथा 11 टीका)
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