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Title

Samaysaar - Gatha No. 12

लोक में सोने के सोलह वान (ताव) प्रसिद्ध हैं। पंद्रहवें वान तक उसमें चूरी आदि पर-संयोग की कालिमा रहती है, इसलिए तब तक वह अशुद्ध कहलाता है और ताव देते-देते जब अंतिम ताव से उतरता है, तब वह सोलह-वान या सौटन्ची शुद्ध सोना कहलाता है। जिन्हें सोलह-वान वाले सोने का ज्ञान, श्रद्धान तथा प्राप्ति हुई है, उन्हें पंद्रह-वान तक का सोना कोई प्रयोजनवान नहीं होता, और जिन्हें सोलह-वान वाले शुद्ध सोने की प्राप्ति नहीं हुई है, उन्हें तब तक पंद्रह-वान तक का सोना भी प्रयोजनवान है।

इसीप्रकार यह जीव नामक पदार्थ है, जो कि पुद्गल के संयोग से अशुद्ध अनेकरूप हो रहा है। उसका समस्त परद्रव्यों से भिन्न, एक ज्ञायकत्व मात्र का – ज्ञान, श्रद्धान तथा आचरणरुप प्राप्ति – यह तीनों जिन्हें हो गये हैं, उन्हें पुद्गल संयोग -जनित अनेकरूपता को कहने वाला अशुद्धनय कुछ भी प्रयोजनवान ( किसी मतलब का ) नहीं है; किन्तु जहाँ तक शुद्ध भाव की प्राप्ति नहीं हुई; वहाँ तक जितना अशुद्धनय का कथन है, उतना यथापदवी प्रयोजनवान है।

(गाथा 12 टीका)

Series

Samaysaar Drashtant Vaibhav

Category

Paintings

Medium

Oil on Canvas

Size

36” x 48”

Orientation

Landscape

Completion Year

01-Jul-2018

Gatha

12