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जैसे दर्पण में अग्नि की ज्वाला दिखाई देती है, वहाँ यह ज्ञात होता है कि “ज्वाला तो अग्नि में ही है , वह दर्पण में प्रविष्ट नहीं है और जो दर्पण में दिखाई दे रही है, वह दर्पण की स्वच्छता ही है।”
इसीप्रकार “कर्म-नोकर्म अपने आत्मा में प्रविष्ट नहीं हैं, आत्मा की ज्ञान-स्वच्छता ऐसी ही है कि जिसमें ज्ञेय का प्रतिबिंब दिखाई दे”, - ऐसा भेदज्ञानरूप अनुभव आत्मा को या तो स्वयमेव हो अथवा उपदेश से हो, तभी वह प्रतिबुद्ध होता है।
(गाथा 19 भावार्थ)
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