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Title

Samaysaar - Gatha No. 35

जैसे कोई पुरूष धोबी के घर से भ्रमवश दूसरे का वस्त्र लाकर, उसे अपना समझकर ओढ़कर सो रहा है और अपने आप ही अज्ञानी ( यह वस्त्र दूसरे का है – ऐसे ज्ञान से रहित ) हो रहा है, (किन्तु) जब दूसरा व्यक्ति उस वस्त्र का छोर (पल्ला) पकड़कर खींचता है और उसे नग्न कर कहता है कि – “ तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह मेरा वस्त्र बदले में आ गया है, यह मेरा है, सो मुझे दे दे” तब बारम्बार कहे गये इस वाक्य को सुनता हुआ वह, (उस वस्त्र के ) सर्व चिन्हों से भलीभाँति परीक्षा करके अवश्य “यह वस्त्र दूसरे का ही है” ऐसा जानकर, ज्ञानी होता हुआ, उस (दूसरे) के वस्त्र को शीघ्र ही त्याग देता है।

इसीप्रकार ज्ञाता भी भ्रमवश परद्रव्यों के भावों को ग्रहण करके उन्हें अपना जानकर, अपने में एकरूप करके सो रहा है और अपने आप अज्ञानी हो रहा है, जब श्रीगुरु परभाव का विवेक (भेदज्ञान) करके उसे एक आत्मभावरूप करते हैं, और कहते हैं कि “तू शीघ्र जाग, सावधान हो, यह तेरा आत्मा वास्तव में एक (ज्ञानमात्र) ही है, “ (अन्य सर्व परद्रव्य के भाव हैं।) तब बारम्बार कहे गये इस आगम के वाक्य को सुनता हुआ वह, समस्त (स्व-पर के) चिन्हों से भलीभांति परीक्षा करके, “अवश्य यह परभाव ही हैं मैं एक ज्ञानमात्र ही हूँ।” यह जानकर, ज्ञानी होता हुआ, सर्व परभावों को तत्काल छोड़ देता है।

(गाथा 35 टीका)

Series

Samaysaar Drashtant Vaibhav

Category

Paintings

Medium

Oil on Canvas

Size

36" x 48"

Orientation

Landscape

Completion Year

01-Jul-2018

Gatha

35