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जैसे गहरा नीला, हरा, पीला आदि (वर्णरूप) भाव, जो कि मोर के अपने स्वभाव से मोर के द्वारा भाये जाते हैं ( होते हैं ) वे मोर ही हैं और (दर्पण में प्रतिबिंबितरूप से दिखाई देनेवाला) गहरा नीला, हरा, पीला इत्यादि भाव, जो कि (दर्पण) की स्वच्छता के विकारमात्र से दर्पण के द्वारा भाये जाते हैं, वे दर्पण ही हैं।
इसीप्रकार मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भाव जो कि अजीव के अपने द्रव्य स्वभाव से अजीव के द्वारा भाये जाते हैं, वे अजीव ही हैं और मिथ्यादर्शन, अज्ञान, अविरति इत्यादि भाव, जो कि चैतन्य के विकारमात्र से जीव के द्वारा भाये जाते हैं, वे जीव ही हैं।
(गाथा 87 टीका)
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Gatha