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प्रातःकाल जिसे राजसिंहासन पर देखा हो वही सायंकाल स्मशान में राख होता दिखायी देता है। ऐसे प्रसंग तो संसार में अनेक बनते हैं, तथापि मोहविमूढ़ जीवों को वैराग्य नहीं आता। भाई! संसार को अनित्य जानकर तू आत्मोन्मुख हो। एक बार अपने आत्मा की ओर देख। बाह्य भाव अनंत काल करने पर भी शान्ति नहीं मिली, इसलिये अब तो अंतर्मुख हो। यह संसार या संसार के संयोग स्वप्न में भी इच्छनीय नहीं है। अन्तर का एक चिदानन्द तत्त्व ही भावना करने योग्य है। ॥२८४॥
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Bol