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सुख-दुःख, वैरी-बन्धु वर्ग में, काँच-कनक में समता हो।
वन-उपवन, प्रासाद-कुटी में, नहीं खेद नहिं ममता हो॥३॥
श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र रुप में पूर्णतया पृथक् कर सकूँ। २हे प्रभो! मुझमें ऐसा साम्यभाव प्रगट हो जिससे मुझे सुख-दुःख, शत्रु-मित्र, काँच-कनक/सुवर्ण, वन- बगीचा, महल-कुटिया इत्यादि सभी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिओं में न तो ममत्व हो और न खेद-खिन्नता हो। ३
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Shlok