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बाह्य जगत कुछ भी नहीं मेरा, और न बाह्य जगत का मैं।
यह निश्चय कर छोड़ बाह्य को, मुक्ति हेतु नित स्वस्थ रमें॥२४॥
अपनी निधि तो अपने में है, बाह्य वस्तु में व्यर्थ प्रयास।
जग का सुख तो मृग-तृष्णा है, झूठे हैं उसके पुरुषार्थ॥२५॥
बाह्य जगत /जगत में रहनेवाले परपदार्थ मेरे कुछ भी नहीं लगते, मैं भी इन परपदार्थों का कुछ भी नहीं लगता; इनका मुझसे और मेरा इनसे कुछ भी संबंध नहीं है - इस सत्य तथ्य को दृढत़ा पूर्वक स्वीकार करके मैं सम्पूर्ण पर पदार्थों का लक्ष्य छोडव़र, मुक्ति के लिए सदा अपने में ही स्थिर होता हूँ। आत्म-रमण करता हूँ। २४
अपना सम्पूर्ण वैभव तो अपने में ही है, बाह्य पदार्थों में उसे पाने का प्रयास करना निरर्थक है। जग के इन पर पदार्थों को सुखमय तथा सुख के कारण मानना तो मृग-मरीचिका के समान भ्रम है; अतः इनके लिए किया गया पुरुषार्थ भी मिथ्या है। २५
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Shlok